Friday, October 19, 2012

बहुत देर तक फैला रहा ख्याबों का मंजर
नीद में जैसे चलते रहे हम मीलों बेखबर 
खुली आँख तो वीराने थे हर तरफ
अकेले थे हम मगर भीड़ थी चरों तरफ
ख्याबों की दुनिया को छोड़ जो चले हम
तन्हाई में अकेले ही जले हम 
मुस्कुराहाटों की लहर थी हंसी के फुव्वारे थे हर ओर 
ख्याबों के टूट कर बिखरने का हुआ कोई शोर
आँखों को मूँद कर कोशिश फिर की हमने
ख्याबों को भुला कर ज़िन्दगी को सींचा हमने
ज़िन्दगी ने इक बार जो जकड़ा हमे
ख्याबों ख्यालों का तो होश ही रहा हमे
इसी होश-बेहोशी में ज़िन्दगी निकल गयी 
पता भी चला के कब राहें बदल गयी
जो शुरू हुआ था ख्याबों से 
जाने कैसे हार गया हकीक़तों से 

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