बहुत देर तक
फैला रहा ख्याबों
का मंजर
नीद में जैसे
चलते रहे हम
मीलों बेखबर
खुली आँख तो
वीराने थे हर
तरफ
अकेले थे हम
मगर भीड़ थी
चरों तरफ
ख्याबों की दुनिया
को छोड़ जो
चले हम
तन्हाई में अकेले
ही जले हम
मुस्कुराहाटों की लहर
थी हंसी के
फुव्वारे थे हर
ओर
ख्याबों के टूट
कर बिखरने का
न हुआ कोई
शोर
आँखों को मूँद
कर कोशिश फिर
की हमने
ख्याबों को भुला
कर ज़िन्दगी को
सींचा हमने
ज़िन्दगी ने इक
बार जो जकड़ा
हमे
ख्याबों ख्यालों का तो
होश ही न
रहा हमे
इसी होश-बेहोशी
में ज़िन्दगी निकल
गयी
पता भी न
चला के कब
राहें बदल गयी
जो शुरू हुआ
था ख्याबों से
न जाने कैसे
हार गया हकीक़तों
से
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