कई दिनों से एक यतीम सा ख्याल
दमाग़ के किसी दरीचे में
छुप कर बैठा है
खामोश, अपेख, इक्फा सा
रह रह कर अंगडाई लेता और
अपने होने का एहसास दिलाता
जैसे किसी अँधेरे घर के झरोखे से
परदे को सरका कर
झांकता एक हल्का सा साया
किसी के होने का एहसास दिलाता
क्या था वह, जो ना हो कर भी
मुझे अपने होने का एहसास दिला जाता
कई बार सोचा, के उसके हलके से
आहट पर मैं भी खामोश हो
चुप चाप बैठ कर
उसके सामने आने का इंतज़ार करूं
पूछूं तो सही, क्या चाहता है
लेकिन मेरे ख़ामोशी पर जैसे
सुकून की नीद सो जाता
कमबख्त कुछ आहट ही नहीं करता
फिर मुझे अपने ज़ेहन पर शक होता
बेमतलब के फितूर पालता है
जब कुछ है ही नहीं
तो न जाने किसकी आहट सुनाता है
लेकिन पता नहीं क्यों
रह रह कर अजीब सा बेचैन करता
इक भूली बात सा, धुन्दला धुन्दला
किसी पुराने ज़ख्म सा, ज़हनी दर्द सा
अदना सा झनझनाता हुआ
कानों के पास भिनभिनाता
मख्खी सा चिडाता हुआ
ख्याल ही था कोई अधुरा सा
मेरे इस कविता सा कच्चा सा