This song written by Sahir Ludhianvi Saab in 1957 for Gurudutt’s film
Pyaasa became an immortal cult song replete with pathos and frustration of a
common man unable to change the course of events in his country. Although
written then in the context of prostitution and exploitation of women, the song
still remains today a stark reminder of the current affairs in the country.
Here is an attempt that takes help of the sheer brilliance of Sahir
Saab’s pen and extends it to today’s context.
ये लुटते हुए कारवां जिंदगी के
ये बढ़ते हुए साये मुफलिसी के
कहाँ है वो इन्सां यहाँ हमसे पूछे
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ है
ये सूखी ज़मीनें, ये सेठों के बाज़ार
सिसकते किसानों की मौतों से इंकार
ये रिश्वत के सौदे, ये सौदों पे तक्रार
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ है
जवानों की बढ़ती ये बेख्वाब दुनिया
ये पैसों पे पागल खुदगर्ज़ गलियां
बिकती जहाँ खोकली रंग-रलियाँ
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ है
उजले घरों में ये चांदी की खनखन
अमीरी के नंगे इरादों की बनठन
ये खैराती टुकडे औ टुकड़ों पे अनबन
जिन्हें नाज़ है हिन्द पे वो कहाँ है
यहाँ बिकती तालीम, बिकते गुरु भी
मंदिर भी, गिरिजा भी, और मस्जिदें भी
बिकता है मुल्क, बिक रही है गुरुरी
जिन्हें नाज़ है हिन्द पे वो कहाँ है
ये बेबाक नज़रें, ये गुस्ताख फितरे
ये बर्बर जवानी के बरहम से शिकवे
इन शिकवों के मासूम कलियों पे छींटे
जिन्हें नाज़ है हिन्द पे वो कहाँ है
मदद चाहती है हौव्वा की बेटी
यशोदा की हमनिस, राधा की बेटी
ये बीवी भी है, और बहन भी है, माँ भी
जिन्हें नाज़ है हिन्द पे वो कहाँ है
ज़रा मुल्क के रहबरों को बुलाओ
ये लुटते और गिरते मंज़र दिखाओ
जिन्हें नाज़ है हिन्द पे उनको लाओ
जिन्हें नाज़ है हिन्द पे वो कहाँ है